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गोरखा / शरद कोकास
Kavita Kosh से
वे दूर देश से आते हैं
फैल जाते हैं देश के शहर-शहर में
हर शहर की हर गली
पूरी पूरी रात
उनकी लाठियों और सीटियों की आवाज़ से
चौकन्नी रहती है
वे हिमालय की तराई से आते हैं
उनकी रगों में
सजग प्रहरी होने का भाव
ख़ून बन कर बहता है
उनकी ज़बान हिम्मत और
भरोसे का सबूत होती है
भरोसा भी ऐसा
जैसे रात का आना
कोसी और करनाली का पानी
हर रात उनके बदन से
पसीना बन उड़ता है
उनकी फ़िक्र में शामिल होती है
बस्तियों बाज़ारों की सुरक्षा
थाने की फाइलों में
अपना एक फोटो चिपका कर
वे ज़रा सी पहचान मांगते हैं
‘स’ को ‘श’ कहते हैं
हर पहली की सुबह बिलानाग़ा
आपको वे ‘शाब’ कहकर
मेहनताना मांगते हैं।
-1996