भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घटाएं जामुनी छाने लगी हैं / ओम निश्चल
Kavita Kosh से
उठ गए डेरे
यहॉं से धूप के
डोलियॉं बरसात की आने लगी हैं।
चल पड़ी हैं फिर हवाएँ कमल-वन से,
घिर गए हैं मेघ नभ पर मनचले,
शरबती मौसम नशीला हो रहा
तप्त तावे-से तपिश के दिन ढले
सुरमई आँचल
गगन ने ढँक लिए
फिर घटाएँ जामुनी छाने लगी हैं।
आह, क्या कादम्बिनी है, और ये
अधमुँदी पलकें मदिर सौदामिनी की
इंद्रधनुषी देह, बादलराग गाती
सॉंस जैसे कॉंपती है कामिनी की
पड़ रही जब से
फुहारें चंदनी
आँसुओं में कुछ नमी आने लगी है।