भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घास / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
कच्चे नीम्बू के पत्तों की नरम मूँगिया रोशनी से
उजागर हो गई है पृथ्वी की भोर बेला ।
हरे बतावी नीम्बू-सी हरी घास चारों और उसकी गन्ध
हिरणों का झुण्ड उसे टूँग रहा है ।
मेरी भी इच्छा होती है घास की इस गन्ध को
हरे मद की तरह भर-भर पान करूँ ।
इस घास की देह को छानूँ
इस घास की आँख में अपनी आँखे मलूँ
घास की पाँखें मुझे पाले पोसें ।
मेरी भी इच्छा होती है ।
किसी छुपी हुई घास माँ की कोख से
घास के रूप में जन्म पा जाऊँ ...।