भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घेरले आंधर जाल हे / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूटल करम हे जनु झोपड़ी वला किसान के
चाँदी काटे शान हे एतबड़ दू महला मकान के

खून पसेना एक करे जे ऊ गबड़ा में डूबल हइ
सटकल पेट देह हे कूबड़ अँखिया जोती बूझल हइ
धरा टिकल हे जेकरा बल पर गुलगुल सकल जहान के

ओकरे उपजल सब अनाज पर बजरा केहे मोछ पजल
पुंजियो न´ बहुरे हे ओकर जान बड़ेरी में हे टँगल
मंगनी में सब मेहनत जाहे थउआ मटिया सान के
ओकरे सभे कमइया पर दुनिया आज नेहाल हे
ओकरे अँखिया के आगू घेरले अन्हरजाल हे
कहिया उगतइ ओक्कर सूरज देखत मुँह बिहान के

सब दिन छल से ओकर अँखिया में पोरला हे धूरी
आशा पर अंटकल बेचारा ई ओकर मजबूरी
अपने हाथ संवारत अब ऊ अप्पन तान वितान के।