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चलता चल / रमेश रंजक

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थोड़ी-थोड़ी
धरती रोज़ बदलता चल
                         चलता-चल।

जीवन धर्मी तार तरल सम्वेदन के
टूट रहे कारण बन कर इनके-उनके

चलता चल
भीतर-बाहर एक मरुस्थल
                         जलता चल।

ध्वनि का धर्म उदास अजब सूनापन है
मूर्छित रेत खेत में पड़ता सावन है

चलता चल
बादल है तो पल प्रतिपल
                         गलता चल।