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चलिए कि बहुत दर्द है रोते हैं थोड़ी देर / फूलचन्द गुप्ता

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चलिए कि बहुत दर्द है, रोते हैं थोड़ी देर
बाहों में बाहें डाल के, सोते हैं थोड़ी देर

ज़ख़्मी हुआ है घर बहुत हमको लिए-लिए
इसको उठाके पीठ पर ढोते है थोड़ी देर

बंजर हुई है कोख़ ग़ज़ल की तमामतर
दुख-दर्द कुछ अवाम के बोते हैं थोड़ी देर

खोए रहे हैं उम्रभर हम किस तलाश में
सहरा में शेष ज़िन्दगी खोते हैं थोड़ी देर

काला है आसमान अमावस की रात है
अंजुम नहीं तो अश्क पिरोते हैं थोड़ी देर