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चित कपटी कौ अंग / साखी / कबीर
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कबीर तहाँ न जाइए, जहाँ कपट का हेत।
जालूँ कली कनीर की, तन रातो मन सेत॥1॥
टिप्पणी: ख प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
नवणि नयो तो का भयो, चित्त न सूधौं ज्यौंह।
पारधिया दूणा नवै, मिघ्राटक ताह॥1॥
संसारी साषत भला, कँवारी कै भाइ।
दुराचारी वेश्नों बुरा, हरिजन तहाँ न जाइ॥2॥
निरमल हरि का नाव सों, के निरमल सुध भाइ।
के ले दूणी कालिमा, भावें सों मण साबण लाइ॥3॥635॥