चित्र-विचित्र मण्डपों से है शोभित अवधपुरी रमणीय।
सर्वकाम सब सिद्धिप्रदायक उसमें कल्पवृक्ष कमनीय॥
उसके मूलभाग में शोभित परम मनोहर सिंहासन।
अति अमूल्य मरकत, सुवर्ण, नीलम से निर्मित अतिशोभन॥
दिव्य कान्ति से करता वह अति गहरे अन्धकार का नाश।
होता रहता उससे दुर्लभ विमल ज्ञान का सहज प्रकाश॥
उसपर समासीन जन-मन के मोहन राघवेन्द्र भगवान।
श्रीविग्रहका रंग हरित-द्युति-श्यामल दूर्वापत्र समान॥
उज्ज्वल आभा से आलोकित दिव्य सच्चिदानन्द-शरीर।
देवराज-पूजित हरता जो सत्वर जन-मन की सब पीर॥
प्रभु के सुन्दर मुखमण्डल की सुषमा का अतिशय विस्तार।
देता रहता जो राका के पूर्ण सुधाधर को धिक्कार॥
उसकी अति कमनीय कान्ति भी लगती अति अपार फीकी।
राघव के वदनारविन्द की अनुपम छबि विचित्र नीकी॥
लसित अष्टमी के शशांक की सुषमा तेजपुञ्ज शुभ भाल।
काली घुँघराली अलकावलि की सुन्दरता विशद विशाल॥
दिव्य मुकुट के मणि-रत्नों की रश्मि कर रही द्युति-विस्तार।
मकराकार कुण्डलोंका सौन्दर्य वर्णनातीत अपार॥
सुन्दर अरुण ओष्ठ विद्रुम-सम, दन्तपंक्ति शशि-किरण-समान।
अति शोभित जिह्वस्न ललाम अति जपापुष्प सम रंग सुभान॥
कबु-कंठ, जिसमें ऋक् आदिक वेद-शास्त्र करते नित वास।
श्रीविग्रह की शोभा वर्धित करते ये सब अंग-विलास॥
केहरि-कंधर-पुष्ट समुन्नत कंधे प्रभु के शोभाधाम।
भुज विशाल, जिन पर अति शोभित कङङ्कण-केयूरादि ललाम॥
हीरा-जटित मुद्रिका की शोभा देदीप्यमान सब काल।
घुटनों तक लंबे अति सुन्दर राघवेन्द्र के बाहु विशाल॥
विस्तृत वक्षःस्थल लक्ष्मी-निवास से अतिशय शोभासार।
श्रीवत्सादि चिह्नसे अङिङ्कत परम मनोहर नित्य उदार॥
उदर रुचिर गम्भीर नाभि, अति सुन्दर सुषमामय कटिदेश।
मणिमय काञ्ची से सुषमा श्रीअंगों की बढ़ रही विशेष॥
जङ्घा विमल, जानु अति सुन्दर, चरण-कमल की कान्ति अपार।
अंकुश-यव-वज्रादि चिह्नसे अंकित तलुवे शोभागार॥
योगिध्येय श्रीराघवके श्रीविग्रहका जो करते ध्यान।
प्रतिदिन शुभ उपचारोंसे जो पूजन करते हैं मतिमान॥
वे प्रिय जन प्रभु के होते, नित उन्हें पूजते सब सुर-भूप।
दुर्लभ भक्ति प्राप्त करते वे राघवेन्द्र की परम अनूप॥