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छठमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

छठमोॅ अध्याय

(है छठमोॅ अध्याय आत्म संयम योग के नाम सें जानलोॅ जाय छै। कोय यै अध्याय केॅ साँख्य योग अथवा भक्ति योग के नामोॅ से जानै छै। कर्म योग से शुरू होलोॅ आत्म ज्ञान के सन्देशें भक्ति योगोॅ में आबी केॅ ही बिराम लै छै। निश्काम कर्म, भक्ति आरो त्याग ही एकरोॅ मूल मंत्र छेकै। भक्ति योगोॅ के द्वारा ही आसान साधना सें परम ब्रह्म के परम धाम में पहुंचै के जग्घोॅ सुरक्षित मिलै छै। साधना से आत्मशुद्धि आरो समता के भाव उत्पन्न होय के आसार होय छै। एकरोॅ बगैर निर्विकार होना सम्भव नै।)

हो अनाशक्त निश्काम मनुज
जे कर्म-कार्य में ही रत छै
हौ योगी सन्यासी छै प्रिय
हौ नहीं जे कि मूढ़े मत छै॥1॥

हे पाण्डु पुत्र! सन्यास-योग, दोनों के लक्ष तेॅ ब्रह्म एक
कामना त्याग ही मूल मंत्र, संकल्प भी दोनों केरोॅ एक॥2॥

कोय योग धरै के गुर सीखै, कोय योगोॅ में दक्षता प्राप्त
कारण-कारज के हौ ज्ञानी, जेकरा में छै कर्त्तव्य व्याप्त॥3॥

मन सकल कामना त्याग करी, इन्द्रिय के जौने चालै छै
हौ नर ही योगी बन सकतै, जौनें कि नियंत्रण पालै छै॥4॥

मन केॅ नीचें वें नै आनै, बस ऊपरे ऊपर सैर करै
जे शत्रु मित्र दोनों बनी केॅ आत्मा के हरदम खैर करै॥5॥

जौने मन केॅ जीती लेलकै, हौ दोस्त भेलै ओकरोॅ हर क्षण
पर जे नर हारलै ओकरा सें, हौ बनी गेलै बड़का दुश्मन॥6॥

जेकरोॅ आत्मा मन जीतलकै, परमात्मा आबि दहाँ बसलै
गम-खुशी सर्द-गर्मी मानोॅ, अपमानोॅ के बदरी छँटलै॥7॥

जौनें मन इन्द्रिय बस करि केॅ, विज्ञान-ज्ञान सें भेलै तृप्त
वै योगी केॅ सोनोॅ की छै? आरो पत्थल के हर बात लुप्त॥8॥

वें ईमनदार शुभचिन्तक रङ, दोस्तोॅ दुश्मन केॅ एक बुझै
पापी पुण्यात्मा में अन्तर, हौ योगी केॅ कखनूं नै सुझै॥9॥

वें आत्मा के जग्घा पर थिर, आपनोॅ परमात्मा हीं देखै
एकाग्र अवश्था में हरदम, मन केॅ बन्धन में वें लेखै॥10॥

अभ्यास योग के कर्त्ता केॅ, कोय पावन देश ही चुनना छै
जहाँ कुशासनोॅ केॅ भूतल पर, मृगछाला, बस्त्र सजाना छै॥11॥

बैठकी बनाबै समतल पर, जहाँ ऊँच-नीच नैं बाधित हो
वै पावन जग्घा पर बैठी, मन इन्द्रिय योग सें साधित हो॥12॥

फिन काया-गर्दनी के सीधा, नासिका अग्र रेखा आनै
यै तरह सें बिनु अबरोधोॅ के, संयम में मनमा केॅ सानै॥13॥

बिनु भय आरो योग के संयम रखि, एकाग्र करी हमरा ताकै
आपनोॅ दिल औ दिमागोॅ में, हमरे ही मूरत केॅ राखै॥14॥

मन क्रिया देह केॅ बन्धन दै, जे योगाभ्यास में लिप्त होतै
वें हमरे लोक में पहुंची केॅ, निश्चय ही एक जग्घोॅ पैतै॥15॥

हे अर्जुन! योगी नैं बनतै, जे न्यूनाधिक भोजन में लिप्त
जब तक मध्यम पथ नैं चुनतै, चाहे न्यूनाधिक सैय्या सुप्त॥16॥

जे हार बिहार के आदी छै, भोजन निद्रा व्यसनोॅ में रहै
वें योगाभ्यास करी आपनोॅ, दुख दर्द हटाबै कर्म करै॥17॥

जबेॅ योग करी केॅ योगीं कोय, मानसिक क्रिया बस में आनै
कामना नियंत्रण करला पर ही, नरें ओकरा योगी जानै॥18॥

जैसें दीपक निर्वायु क्षेत्र में, बिनु कम्पन के सतत जरै
वैसें शासित एकाग्राचित्त, केॅ ध्यान सदा बिनु विघ्न सरै॥19॥

जे योग समाधि मग्न पुरूष, भौतिक मन-क्रिया सें रही दूर
वें स्वतः शुद्ध मन सें हेरै, है योग-स्वरूपोॅ केरोॅ तूर॥20॥

हौ परमानन्द अवश्था ठो, तखनी होय छै अति सुखदाई
इन्द्रियें भी सुख अनुभूती करै, स्वच्छन्द चेतना सुखदाई॥21॥

तखनीं अैसें ही लागै छै, सच्चाई सें नै कभी भागूं
आरो उपहार के पैला पर, भी लागै छै आरो पावूं॥22॥

वै ठियाँ पहुंचला पर लागै, दिक्कत में भी फंसि यहीं रहूं
हैसबसे बड़ोॅ चिकित्सा छै, दुःख में भी सुख आनन्द चहूं॥23॥

विश्वाश आरो निश्चय सें हीं, कोय योगाभ्यास करेॅ पारतै
कामना अहं केॅ दूर करीं, इन्द्रिय, मन केॅ रोकेॅ पारतै॥24॥

धीमे सें पग के अग्र करी, बुद्धि-क्षेत्रें घुसपैठ करै
मन केॅ स्थिर अपनावै लेॅ, वैं योगीं हरदम सोच करै॥25॥

आपनोॅ स्वभाव के गति लेनेॅ, हौ मन चंचल जन्नेॅ नाँचै
तन्नेॅ मन के बस लै खातिर, आत्मा भी आपनोॅ जतन रचै॥26॥

हमरा में मन केॅ थिर करि केॅ, जे योगी हमरोॅ ध्यान धरै
हौ ब्रह्मलीन के साथ परम सुख, पाप मुक्त शान्ति सें फिरै॥27॥

हौ योगी होतै मुक्त सुखी, हरदम सांसारिक बन्धन सें
जौनें सम्पर्क करै हमरोॅ, एकाकारी होय केॅ मन से॥28॥

जे आत्मज्ञान नर प्राप्त करै, सर्वत्र वें हमरा ही देखै
वै सिद्ध योगी हमरा में सब, सब में हमरा हीं सतत लखै॥29॥

जें हमरा ही सर्वत्र लखै, सब प्राणी में हमरा परखै
हौ केनां भुलैतै हमरा सें? जें हमरोॅ सुध हरदम राखै?॥30॥

हौ योगी जौनें जानै छै, हमरोॅ परमात्मा के स्वरूप
वें हमरा भजतें-भजतें ही, पहुंची केॅ मिलाबै आपनोॅ रूप॥31॥

हे अर्जुन! हौ छै पूर्ण योगि, जे स्वतः तुल्य आपनोॅ मन में
वै समदर्शी सुख-दुःख झेलै, निश्चिन्त अवश्थां जीवन में॥32॥

अर्जुन बोललै हे मधुसूदन! जे योग नेम हमरा कहल्हौ
हौ करै योग्य ही नै लागै, मन स्थिर जब तक नै भेल्हौं॥33॥

मनमा हमरोॅ चंचला कृष्ण! स्थिर करना मुश्किल लागै
तूफान से बेशी वैं में गति, कित्तोॅ पकड़ौं फिर भी भागै॥34॥

भगवानें सुझैलकै अनाशक्ति, आरो प्रयास वस चारा छै
हे कुन्ती पुत्र! तों सच बोलल्हौ, मन चंचल अति दुस्कारा छै॥35॥

अनसंयत मन सें योग कर्म, करला में बड़ कठिनाई छै
चल राह सही, मन वस राखी, वस, यै में सही भलाई छै॥36॥

अर्जुनें पुछलकै योग कर्म, जें शुरू करलकै नियम्हैं सें
ओकरोॅ की गति? जें बाद तजै, है योग कर्म केॅ विघ्नोॅ सें?॥37॥

हे कृष्ण महाबाहो! बतलाभौ, जें रस्ता में जा अटकै
हौ सौॅन घट रङ बनी अवारा, सगरोॅ नभ में नै भटकै?॥38॥

हमरोॅ संसय बस यही कृष्ण! एकरा तों जल्दी निवटाबोॅ
तोरोॅ छोड़ी के बतलैतै? जल्दी सें हमरा समझाबोॅ॥39॥

भगवानें कहलकै सखा पार्थ! अच्छा नर बुरा केनां होतै?
जे निर्माणोॅ में छै प्रवृत, फिन वें विनाश कैसें करतै?॥40॥

जे योग कर्म में रत रहलै, फिर भी जों सफलता नै पैलकै
हौ लोकोॅ के सुख भोग करी, लै जन्म पुण्य कुल अपनैतै॥41॥

अथवा हौ योगी जनम धरी, कोय कुल केॅ आभूषित करतै
बुद्धि विद्या में सतत रही, है जगती के कुछ दुःख हरतै॥42॥

हौ पुर्व जनम के योग साधना, यै जन्में आबी बढ़तै
हे कुरूनन्दन! यै जन्मोॅ में, हौ सफल शिखर पेॅ फिन चढ़तै॥43॥

वै पुर्व जन्म के संचित तप, यै जनम में मदद अवसि करतै
जें पुनः योग अभ्यासोॅ सें, परब्रह्म नगीच हीं पहुंचैतै॥44॥

जों पुर्व जन्म के संचित तप, यै जनम में आवी छितरैतै
तेॅ कत्तेॅ जनम बितैला पर, योगी वनि ब्रह्म में हौ मिलतै॥45॥

एक योगी छै तपसी सें बड़ोॅ, जें राखै छै खुब बड़ोॅ ज्ञान
जे कर्मोॅ केॅ चलबावै छै, से योग धर्हौं तों हे अर्जुन॥46॥

सब योगीं जे हमरा ही भजै
श्रद्धा विश्वास औ कर्मोॅ से
हौ योग साधना रत योगी
हमरा में मिलै निज धर्मोॅ से॥47॥