जंग / शरद कोकास
आवाज़ में छुपी शक्ति
ढहा सकती है
आदमी आदमी के बीच खड़ी दीवार
ज़रूरी नहीं कि हम
भीतर ही भीतर
अपने पक्ष में संवाद गढ़ते हुए
ज़बान को ज़ंग लग जाने दें
इच्छाओं सपनों और महत्वाकांक्षाओं को
चुप्पी के आवरण में लपेटकर
मन के सन्दूक की तह में डाल दें
ज़रूरी नहीं कि पूर्वजों के अनकहे शब्द कहने के लिये
अगली पीढ़ी का मुँह ताकें
ज़रूरी नहीं कि डरते रहें उन लोगों से
जिन्होंने ज़बान खुलने पर
जान ले लेने की धमकी दी है
उनकी अपनी सुविधा के लिये है
उनकी नियमावली
उनकी दुनिया का समाजशास्त्र
उनके सुख के लिये है
उनकी अपनी फ्रेम है जिन में वे
मढ़ देना चाहते हैं हर एक की ज़िन्दगी
उनका है अपना शब्दशास्त्र
अपनी भाषा अपनी आवाज़
अपने प्रिय शब्दों के अलावा
उन्हें कुछ भी सुनना पसन्द नहीं
उनके अपने चश्में हैं
जिन से दिखाना चाहते हैं वे अपनी दुनिया
पश्चाताप के अरण्य रुदन से बेहतर है
रक्त को विरोध की आँच में तपाना
तय है कि
चुप्पी से जंग नहीं जीती जा सकती।
-1997