भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब भी / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Kavita Kosh से
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।
झपटता बाज,
फन उठाए सांप,
दो पैरों पर खड़ी
कांटों से नन्ही पत्तियां खाती बकरी,
दबे पांव झाड़ियों में चलता चीता,
डाल पर उलटा लटक
फल कुतरता तोता,
या इन सबकी जगह
आदमी होता।