भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जबसे ग़म की हवा चली-सी है / भावना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जबसे ग़म की हवा चली-सी है
तबसे हर सिम्त खलबली-सी है

रोज़ लेती है एक शक्ल नयी
बात उनकी जो मखमली-सी है

मैं तो मीरा नहीं, मगर फिर भी
लोग कहते हैं बावली-सी है

है हवा धुंध में कहीं गुमसुम
मेरी आँखों में बेकली-सी है

मुस्कराहट है उनके चेहरे पर
या कोई खिल रही कली-सी है