जबसे ग़म की हवा चली-सी है
तबसे हर सिम्त खलबली-सी है
रोज़ लेती है एक शक्ल नयी
बात उनकी जो मखमली-सी है
मैं तो मीरा नहीं, मगर फिर भी
लोग कहते हैं बावली-सी है
है हवा धुंध में कहीं गुमसुम
मेरी आँखों में बेकली-सी है
मुस्कराहट है उनके चेहरे पर
या कोई खिल रही कली-सी है