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ज़माने की लहर / माधव शुक्ल
Kavita Kosh से
ये दिल में आता है उठ खड़े हों, समय हमें अब जगा रहा है।
बिला हुए तार भी लहू में, वो तार बर्की लगा रहा है।।
जहाँ अँधेरा था मुद्दतों से, न देख सकता कोई किसी को।
उसी जिगर में छिपा हुआ, कुछ न जाने क्या जगमगा रहा है।।
उरूजवाले बिगड़ रहे हैं, हज़ारों बिगड़े सँवर रहे हैं।
करिश्मे कुदरत के कौन जाने, ये बात वो है जो लापता है।।
कभी भी मायूस हो न 'माधो',ज़माना ये इनकिलाब का है।
उठाना सबको ये काम है इसका, जो अपनी हस्ती मिटा रहा है।।