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ज़िन्दगी उपहास बन गई / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी उपहास बन गई
चन्द वर्षों में ताश बन गई ।
भूख और प्यास को समेटकर
शब्द में समास बन गई ।
पहनकर भी जिसको नंगे रहे
झीनी चादर का लिबास बन गई ।
छोटे-छोटे टुकड़ों में छपी हुई
एक मोटा उपन्यास बन गई ।
पहले थी मात्र एक घटना
अब पूरा इतिहास बन गई ।
सोचते थे ईख बन जाएगी
खोखला इक बांस बन गई ।
अन्धेरे से निकलने की जानिब
नए रास्तों की तलाश बन गई।