भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं / राजेश रेड्डी
Kavita Kosh से
ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में ख़ंजर बोलते हैं
मेरी परवाज़ की सारी कहानी
मेरे टूटे हुए पर बोलते हैं
सराये है जिसे नादां मुसाफ़िर
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं
तेरे हमराह मंज़िल तक चलेंगे
मेरी राहों के पत्थर बोलते हैं
नया इक हादिसा होने को है फिर
कुछ ऐसा ही ये मंज़र बोलते हैं
मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं