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जे बा दीहले रतन, बबुआ करिह जतन / राधामोहन चौबे 'अंजन'

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जे बा दीहले रतन, बबुआ करिह जतन ; ई ह सोना ना माँटी मिलावे होई।
अइसन अनमोल धन, पवल मानुष के तन ; कर्ज बाटे त मन से चुकावे होई।।

कहि के आपन भुला गइल सपना के धन ; कहियो अचके हेराई, खुली जब नयन।
केहू के सिरिजल चमन, चमके झिलमिल सुमन ; आन्ही-तूफान सबसे बँचावे होई।।

चारि दिन के झमेला बा, मेला हवे ; नइख बूझत मदारी के खेला हवे।
केतना बाटे जलन, केतना बाटे तपन ; नेह-नाता ना कवनो लगावे होई।।

देख जागल बा जे, जे बा उधिया गइल ; केहू धइले ना बाटे जे बा पा गइल।
रचि के ‘अंजन’ नयन, जे बा पवले घुटन ; देखि दरपन सुरतिया लगावे होई।।