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जो दिन अभी आए नहीं / शशिप्रकाश
Kavita Kosh से
एक दिन
लोग इन दिनों के बारे में बातें करेंगे
कि कविता तब गाढ़े साँवले अँधेरे में
आकुल तन्द्रा के समान थी
या चुपचाप बहते रक्त के समान।
कि सपने तब तिरते थे ज्यों
रक्त की नदी में डगमग एक डोंगी।
और फिर वे दिन आए
कि कविताओं में
पत्थरों पर जमी हरी काई की
ज़िद्दी जिजीविषा हुआ करती थी,
फेफड़ों की आखि़री ताक़त झोंककर
फ़ैसले के मुक़ाम की ओर भागते
घोड़े के गर्म-गतिमान शरीर से
उठती गन्ध हुआ करती थी।
एक दिन लोग
कविता में
उन दिनों की बातें भूतकाल में करेंगे
जो अभी आए नहीं।
( रचनाकाल : 2 जनवरी 1997)