भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टपकी नीम जेठ मास में / ज्योति खरे
Kavita Kosh से
अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम नीम के नीचे
तपती गरमी जेठ मास में
प्यास प्यार की लगी हुई
होंठ माँगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप साँवला हवा छू रही
महकी नीम जेठ मास में
बोली अनबोली आंखें
पता माँगती घर का
लिखा धूप में उँगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़क ढूँढ़ती
पिघली नीम जेठ मास में
स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग़ खिले जब
टपकी नीम जेठ मास में