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ठहरै वास्तेॅ की घिघियाना / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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ठहरै वास्तेॅ की घिघियाना
लगले रहतै आना-जाना।

कोय मरै, केकरौ कुछ दुख नै
की कसाय रं लगै जमाना।

एक जरा-सा गलती लेली
सुनतेॅ रहोॅ उमिर भर ताना।

के चोराय छै निर्मोही रं
चिड़ियोॅ तक के बचलोॅ दाना।

जे गरीब छै ओकरोॅ देह के
पानी नाँखि खून-पसीना।

सारस्वतो के आगू केकरो
चलतै कब तक झूठ-बहाना।