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ठाँव नहीं / अज्ञेय
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शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में
अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में
त्राहि! त्राहि! शरण-शरण!
रुकते नहीं युगल चरण
थमती नहीं भीतर कहीं गँूज रही एकसुर रटना
कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें!
आन? मान? वह तो उफान है गुरूर का-
पहली जरूरत है जान से चिपटना!
इलाहाबाद, 23 अक्टूबर, 1947