भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठाढ़ी रहो, डगो न भगो / ठाकुर
Kavita Kosh से
ठाढ़ी रहो, डगो न भगो, अब देखो जो है कछु खेलत ख्यालहिं ।
गावन दै री, बजावन दै सखी, आवन दै इतैं नंद के लालहिं ॥
’ठाकुर’ हौं रँगिहौं रँग सों अंग, ओड़ि हौं बीर ! अबीर गुलालहिं ।
धूंधर में, धधकी में, धमार में, धसिहौं अरु धरि लैहौं गोपालहिं ॥