डर / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
बेटी को आजकल डरावने सपने आते हैं
सोते-सोते जग पड़ती है
फिर सिहर उठती है इस खौफ से
कि जैसे कोई छुरा लेकर उसके पीछे खड़ा है
कि मौका लगते ही घोंप देगा पीठ में
कि जैसे ही ज़मीन पर टिकाएगी पाँव
कोई काट देगा पाँव
ऐसे ही सपने मुझे भी आते थे
और डराते थे जब मैं थी बेटी की उम्र में
एक सपना अक्सर मेरा पीछा करता था
कई किश्तों में आता था
कि बियाबान जंगल में रास्ता भटक गयी हूँ
और भेडिय़ों का एक झुण्ड
मेरी ओर लपकता हुआ आ रहा है
मैं उनके भय से पीछे हट रही हूँ
मुड़कर देखती हूँ
कि बेतरतीब कंटीली झाडिय़ाँ खड़ी हैं
मैं झाडिय़ों में उलझकर लहूलुहान हो जाती हूँ
गिर जाती हूँ
और भेडि़ए मुझे घेर लेते हैं
कि तब ही मेरी आँखें खुल जाती हैं
मैं पसीने से तर बतर
गला सूख जाता है
साँसे तेज़ चल रही होती हैं
अंधकार के समंदर में डूब रही होती हूँ मैं
ऐसे कि जैसे मर रही होती हूँ
मैं तब हिम्मत कर के बत्ती जलाती हूँ
कि घर में सब चैन की नींद सोए हैं
एक मुझे ही कहाँ से दीखते हैं ये भेडि़ए
और आखिर उम्र के एक खास पड़ाव पर आकर
लड़कियों को ही क्यों डराता है डर
अब समय आ गया है
कि डराने वाले सपनों को देखना बंद करना होगा
हम डरती हैं तभी डराते हैं डर
हमें, ऐसे भेडिय़ों के लिए थामने होंगे हथियार
सपनों में भी