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तप कर के हम / महेश अनघ
Kavita Kosh से
तप करके हम
भोजपत्र पर लिखते रहे ऋचा,
कैसे लिखें वंदना
सिंहासन के पाए पर ।
इधर क्रौंच की करुणा
हम को संत बनाती है,
उधर सियासत
निर्वसना होकर आ जाती है,
शब्द रीझते नहीं
किसी छलना के जाये पर ।
हम लिखते है
उजले आँसू की आनंद-कथा
सागर में लिखते
मोती की माँ की प्रसव-व्यथा
कालिख धर जाती है संसद
लिखे-लिखाए पर ।
ठहरी आग पूजते
पूजें बहते पानी को,
बच्चों से लेते हैं
देते प्रेम जवानी को,
कैसे फूल चढ़ा दें
सत्ता के बौराए पर ।
क़लम हमारी नयनों वाली
सब कुछ दिखता है,
हार फूल में नाग
मुकुट में कलियुग बैठा है,
सूर्यमुखी हैं गीत
नहीं छपते हैं साए पर ।