तब तक गश्त पर हूँ मैं / वंदना गुप्ता
मैं गश्त पर हूँ...
और गश्त पर निकले राही को
हर पल चौकन्ना रहना होता है
बेशक पता होता है मंजिल का
सड़क का और सफ़र का भी
फिर भी ना जाने कौन कहाँ से
कब वार कर दे
और कर दे धराशायी
आँख और कान का खुला होना ही काफी नहीं होता
दिमाग के कलपुर्जों को भी
काम पर लगाये रखना
और चलते जाना
आवाज़ लगाते या सायरन बजाते
मगर आवाज़ लगाने की या सायरन बजने की
प्रक्रिया में भी कहीं न कहीं
भयग्रस्त माहौल या अंधियारे की कोख में से
उपजा एक डर कहीं न कहीं सचेत रखता है
और पूछता है खुद से ही
ये किसे चौकन्ना कर रहे हो... खुद को
किसे आवाज़ लगा रहे हो... खुद को
चोर कहाँ है और कौन है... तुम खुद ही
कोई लकडबग्घा घात लगाये नहीं बैठा
जो है तेरा भीतरी शोर है
तेरे भीतर का अवचेतन ही तुझे सचेत कर रहा है
तेरे भीतर उमड़ी उपजी संत्रास्ता ही
तुझमे छुपे डर के चोर को चौकन्ना कर रही है
ये तेरी ही आवाज़ तुझे बुला रही है
ये तेरे ही दोहरे रूप तुझे डरा रहे हैं
ये तेरी ही परछाइयाँ तुझसे लम्बी हो रही हैं
वर्ना रात हो या दिन
अन्दर के चोरों को जिस दिन काबू कर लोगे
मंजिल पर पहुँच जाओगे
और गश्त भी पूरी हो जायेगी
मगर जब तक न अन्दर के चोरों को
समझने, पकड़ने और फिर उन पर
लगाम कसने की प्रक्रिया नहीं जान पाती
तब तक गश्त पर हूँ मैं...
क्योंकि ये ऐसे चोर हैं
जिन्हें हम जानते भी हैं
समझते भी हैं
मगर लगाम कैसे कसी जाए
कैसे उस पर काठी कसी जाए
और फिर कैसे उन पर सवार होकर चला जाए
जब तक ना ये भेद जान पाती हूँ
तब तक गश्त पर हूँ मैं...