तय है / मुकेश निर्विकार
भिखारी के लिए तय है
हरेक दिल में
एक जैसी कीमत करुणा की-
जेब में पड़ा छुट्टा सिक्का!
आलीशान कोठियों की चकाचौंध में भी
होती है घुप्प अंधेरी कोठरियाँ
जिनमें घुट-घुटकर देखा करतीं हैं मरने की रहा—
अपाहिट बूढ़ी दादी माँ!
कुत्ते को तो चाटनी है जूठन
सबसे अंत में घर की
चाहे वह लाख तका करे रसोई
बाहर खड़े-खड़े!
ललचाते भिखारी के लिए
निष्फल है मुँह में चचुआता पानी
और सौंधी-सौंधी महक पकवानों के
तले जा रहे हैं जो
बाम्हन जिमाने के लिए।
लाख सुंदर सही
और बेहद गुणवान भी
लेकिन ब्याही जाएगी
बेमेल दूजाह को ही
गरीब बाप की बेटी!
पा नही सकती है
बेटी-जैसा लाड़ प्यार
भले ही अपनी जान एक कर दे
सेवा-शुश्रूषा में रात-दिन
ससुराल में बहू!
नहीं बरसेगी लक्ष्मी
उसके आँगन में
बिलकुल भी
जब तक ताने रहेगा वह बेवकूफ
ईमान की चादर!
‘निर्विकार’ तुम्हारा तो तय है
भूखों मरना
और दु:खी रहना भी
तुमने इस कलिकाल में
उसूलों को निभाने की
बेहूदी कसम जो खायी है!