भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तु देखि देखि री! पथिक परम सुंदर दोऊ/ तुलसीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(16)

तू देखि देखि री! पथिक परम सुन्दर दोऊ |

मरकत-कलधौत-बरन काम-कोटि-कान्तिहरन,
चरन-कमल कोमल अति, राजकुँवर कोऊ ||

कर सर-धनु, कटि निषङ्ग, मुनिपट सोहैं सुभग अंग,
सङ्ग चन्द्रबदनि बधू, सुन्दरि सुठि सोऊ |

तापस बर बेष किए, सोभा सब लूटि लिए,
चितके चोर, बय किसोर, लोचन भरि जोऊ ||

दिनकर-कुलमनि निहारि प्रेम-मगन ग्राम-नारि,
परसपर कहैं, सखि ! अनुराग ताग पोऊ |

तुलसी यह ध्यान-सुधन जानि मानि लाभ सघन,
कृपिन ज्यों सनेह सो हिये-सुगेह गोऊ ||