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तुम नहीं कहाँ / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
चलो हवा, भर दो पेड़ों को
नाचें, झूमें, गायें वे
बैलों के पैरों में लिपटो
रह-रह चक्कर खाएँ वे
हवा, जरा जाओ बगिया में
गुमसुम फूल बुलाते हैं
कौन गंध ले जाए उनकी
खिलते हैं, सकुचाते हैं
अगर तेज चलना है तुमको
उड़ो पतंगों-सी फर-फर
आसमान में, मैदानों में
पर्वत पर उतरो जाकर
नाविक की मेहनत कम कर दो
उनके पाल उड़ाओ तुम
पक्षी-सी उनकी नावों को
दूर-दूर ले जाओ तुम
सन-सन, साँय-साँय भन-भन-भन
कितने स्वर में गाती हो
बनकर सुबह सुहानी शीतल
सुख देने को आती हो
मुझको तुम अच्छी लगती हो
घूम रही हो यहाँ-वहाँ
कभी मंद-सी, कभी बन्द-सी
कभी तेज, तुम नहीं कहाँ।