भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम हो मगर नहीं मिलते / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
तुम्हारी तमन्ना
जैसे बुझे हुए चिराग़ों से रौशनी माँगना
तुम्हारी दीद
जैसे अमावस की शब पूर्णिमा का तस्सवुर करना
तुम्हारा लम्स
जैसे छत पर लेटे हुए सितारों को चूम लेना
तुम्हारी इबादत
जैसे कर रहा हूँ तसल्ली के लिए सिर्फ़
और जी रहा हूँ यही सोच कर
कि कभी किसी को ख़ुदा नहीं मिलता
सच तो ये है
तुम अक्सर दिखाई देते हो
ग़म तो ये है
कि तुम हो मगर नहीं मिलते!