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तुम्हारा साथ / जगदीश गुप्त

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कोई अनपहचाने स्वर में,
जाने कितनी बार कह चुका —
छूट रहा है हाथ तुम्हारा,
पर जीवन के नए मोड़ पर
नई तरह से
मुझे मिल रहा साथ तुम्हारा ।

             जहाँ कहीं भी बिना सहारे,
             जितने भी लड़-लड़ कर हारे,
             अपनी ही गति के आरोही,
             पथ पर जितने थके बटोही,
             जिन्हें न तिल भर छाँह मिली है,
             चूम-चूम कर पी लेने को जिनके आँसू,
             कभी न कोई कली खिली है,
             जो अतृप्त हैं, जो अशक्त हैं,
             जो अपने मन की छितराई अभिलाषाओं में विभक्त हैं ।
             वे भी जिनके हाथ आज तक
             हुए कर्म में सदा विकम्पित ।
             जिनके पलकों के नीचे ही जाने कितने स्वप्न मर गए ।
             जिनकी अलकों में झंझा के झोंके कितनी धूल भर गए ।
             आज मुझे लगता है जैसे
             इन सब हारों, लाचारों पर —
             अन्धकार से लड़ने वाले इन अनगिनत नखतों तारों पर —
             फैल रहा है हाथ तुम्हारा;

अपना आँसू से भीगा आँचल फैलाता,
छाया करता, थकी देह उनकी सहलाता,
मन की सारी ममता, करुणा सहज लुटाता,
कल्पवृक्ष के नवल पात-सा
फैल रहा है हाथ तुम्हारा ।

अब न कभी छूटेगा मुझसे साथ तुम्हारा ।