भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी आँखें इतनी लाल क्यों हैं ? / निर्मलेन्दु गुन / प्रशान्त विप्लवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं ऐसा नहीं कह रहा कि प्रेम करना ही होगा
मैं चाहता हूँ
कोई मेरे लिए भी प्रतीक्षा करे
सिर्फ़ घर के अन्दर से दरवाज़ा खोल देने के लिए
मैं बाहर से दरवाज़ा खोलते-खोलते
क्लान्त हो चुका हूँ अब

मैं ऐसा नहीं कह रहा कि प्रेम करना ही होगा
मैं चाहता हूँ
कोई मुझे खाने को दे
मैं नहीं कह रहा
कि कोई मेरे पास बैठकर बेना हिलाए
मैं जानता हूँ, इस इलेक्ट्रिक युग ने
नारी जाति को स्वामी-सेवा से मुक्ति दी है

मैं चाहता हूँ कोई मुझसे सिर्फ़ पूछ ले
क्या मुझे पानी चाहिए
क्या मुझे नमक चाहिए
साग के साथ एक और तली हुई सूखी मिर्ची लगेगी क्या
जूठे बर्तन, गंजी-रुमाल
सबकुछ मैं ख़ुद ही धो सकता हूँ
 
मैं ऐसा नहीं कह रहा कि प्रेम करना ही होगा
मैं चाहता हूँ
कोई अन्दर से मेरे घर का दरवाज़ा खोल दे
कोई मुझे कुछ खाने के लिए पूछे
काम-वासना का साथी भले ही ना हो
इतना तो अवश्य ही पूछे
“तुम्हारी आँखें इतनी लाल क्यों है”

मूल बांग्ला से अनुवाद : प्रशान्त विप्लवी