भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरे हिस्से का पहाड़ अब उनका / श्रीधर करुणानिधि
Kavita Kosh से
तेरे आबनूसी शरीर की लकड़ियाँ
बेशक़ीमती हैं
तेरे घर के इर्द-गिर्द टिब्बे-टीले-पहाड़
खज़ानों की तरह
इतने बरस तक जंगल हरे रहे
तुम्हारे गीतों को सुन
पहाड़ ऊँचे रहे तुम्हारे सीने को देख
हटो कि पहाड़ अब कट रहे हैं
हटो कि पेड़ अर्राकर गिर रहे हैं
तेरी धरती के नीचे
है बहुत ईंधन
है बहुत सोना
गवारा नहीं उन्हें अब एक पल भी खोना ....