तेसरोॅ अध्याय / गीता / कणीक
॥तेसरोॅ अध्याय॥
(निश्काम भाव से खाली दोसरा के हितोॅ लेली आपनोॅ कर्मोॅ केॅ करै के गूढ़ बात यै तेसरोॅ अध्याय में दद्यृत छै। एकरा ‘कर्मयोग’ के नाम दै केॅ फल रहित कर्म करै लेली प्रेरित करलोॅ गेलोॅ छै। जिन्दगी के भोतिक आवश्यकता वास्तें भौतिक प्राणी केॅ स्वभावगत इच्छां आरो लोभें बड्डी प्रभाव डालै छै। इन्द्रिय के तुष्टिकरण आत्मा के विकाश में सबसे बड़ोॅ बाधक तत्व होय छै। वै पर नियंत्रण के साथ मन आरो बुद्धि अंकुश राखला सें ही हौ विकाश संभव छै। येहेॅ टा सन्देशा यै अध्याय में समाहित छै।)
भारी रहस्य युत् वाणी सुन
अर्जुन के धीरज औकतैलै,
हौ बोली उठलै हे केशव!
है युद्ध प्रेरणां नै भैलै॥0॥
जबेॅ बुद्धिये फलप्रद कर्म तेज, तोरोॅ छै एसनोॅ ही कहना
ते फेनू उकसाभौॅ कैन्हे? है लड़ै मरै के गम सहना?॥1॥
हमरोॅ बुद्धि कुंठित भेलै, तोरा निरपेक्ष बिचारोॅ सें
यै लेली सही उपदेश कर्हौ, जेकरा फेनु गुनियौं तारोॅ सें॥2॥
भगवानें कहलकै हे अर्जुन! दू श्रेणी के छै मनुज ज्ञान
एकके सीखै दर्शण पढ़ि केॅ, दूजें भक्ति के भाव जान॥3॥
कर्मोॅ केॅ नागा करला सें, प्रतिक्रिया सें मुक्ति नैं पैतै
नै खाली ठो सन्यास विधि सें, लक्ष्य-पूर्णता तक जैतै॥4॥
वशीभूत प्रकृति के गुण सें हीं, बिनु कारण, कारज नै संभव
यै हेतु अल्प क्षण लेली भी, इनकार कर्म के नै संभव॥5॥
कोय करै नियंत्रण इन्द्रिय पर, पर मानस इन्द्रिय संग रहै
हौ आपन्है मात्र छलावा छै, खाली दिखावटी काम करै॥6॥
जेकरोॅ मानस ही नियंत्रित, इन्द्रिय मानस के वस में बसै
ओकरोॅ मानस भक्ति में ही रमै, हौ बहुत ही सेतर ज्ञानी रहै॥7॥
तों काम करोॅ नियत अपनोॅ, कर्मे छै बढ़ी अकर्मोॅ सें
बिनु कारण तेॅ कोइयो नर भी, नै जोगै शरीर के मर्मोॅ केॅ॥8॥
यज्ञोॅ लेली जे कर्म करै, हौ टा जग के ही बन्धन छै
अन्यथा, यज्ञ संग मुक्त धरोॅ, परब्रह्म लेली, कुरूनन्दन हे॥9॥
श्रष्टि के शुरू में ब्रह्मा नें, मनुजोॅ देवोॅ केॅ रचनै रहै
यज्ञहै खातिर इच्छित वस्तु, पावै लेली ही कहने रहै॥10॥
देवता यज्ञ करी भेलै मगन, तोहे भी वैसें यज्ञ करोॅ
एक दूजे के भावोॅ केॅ बांटि, दुनियाँ केॅ खुशहाली से भरोॅ॥11॥
सन्तुष्ट होय केॅ देवेॅ ने, भोगै के इष्ट वस्तु देलकै
पर हौ नर तेॅ चोरे भेलै, जैं दै के नाम छुच्छे लेलकै?॥12॥
हर पाप मुक्त छै हौ प्राणी, जें यज्ञ-अन्न सें पेट भरै
ओकरोॅ भोजन तेॅ पापे छै, जें बिना यज्ञ के कर्म करै॥13॥
जत्तेॅ प्राणी यै जग में छै, सबकेॅ ही अन्न सहारा छै
वर्षा से अन्न, यज्ञ से वर्षा, बस कर्म ही यज्ञ के धारा छै॥14॥
पर-ब्रह्म बताबै वेद विधि, जेकरा में कर्म प्रदर्शित छै
कर्मोॅ के मूल में यज्ञे छै, जेकरा पर सब कुछ अर्पित छै॥15॥
वेदोॅ में प्रवर्तित चक्रोॅ केॅ हे पार्थ! नैं जें अनुशरण करै
हौ नरकोॅ के भागी प्राणी, आपन्हैं इन्द्रिय के बरण करै॥16॥
यज्ञोॅ से आत्मतुष्ट प्राणी, जे तृप्त भेलै निज कर्मोॅ सें
हौ सभ्भै सें सन्तुष्ट नरें, अनुशरण करै निज धर्मोॅ के॥17॥
ओकरा नैं जरूरत नियत कर्म, जे आश्रित छै केवल हमरोॅ
बस, वेद यज्ञ औ परम ब्रह्म, एकमात्र लक्ष्य ही छै ओकरोॅ॥18॥
जें बिनु परिणाम के कर्मोॅ केॅ कर्त्तव्य कही केॅ लारै छै
वेॅ हो अशक्त यै धरती पर, परब्रह्म केॅ पाबेॅ पारै छै॥19॥
नृप जनक सभै हो आत्मतुष्ट, कर्मोॅ में लीन सदा रहलै
यै हेतु लोक संग्रह लेली, यज्ञोॅ के कर्मोॅ में पड़लै॥20॥
जे लोकपुरूष कर्त्तव्य करी, बस, मार्ग-कर्म अनुशरण करै
हर आम जनें पदचिन्ह धरी, वै लोकपुरूष के करम करै॥21॥
हे पार्थ! पुरे त्रिलोकोॅ में, हमरोॅ नैं कोय कारज नीयत
नै हमरोॅ कुछु लै के इच्छा, तैइयो कर्मोॅ में हमरोॅ मत॥22॥
हम्में बझलोॅ यदि नैं कर्मे, हे पार्थ! जांे प्राणी हौ देखतै
तेॅ वै प्राणीं अनुशरण करी, बस, हमरे मार्गोॅ पेॅ चलतै॥23॥
जों लोक कार्य ही बन्द करौं, तेॅ लोक कहाँ सें बच सकतै
फिनु वर्ण-संकरें पैदा लै, संहारै लेली नैं कहतै?॥24॥
नां समझी सें जें कर्म करै, ओकरोॅ परिणाम अलहदे छै
जें समझी-बूझी राह धरै, वै लोक-पुरूष केॅ फैयदे छै॥25॥
फल हेतु कर्म में लीन पुरूष, ओकरा ज्ञानीं नैं कुछ भी कहै
कामना रहित कर्मोॅ में रही, बस, भक्ति योग में बहतें रहै॥26॥
फिन अहंकार सनलोॅ आत्मा, त्रिगुणोॅ के चपेटें भटकै छै
प्रकृति के बनैला कामोॅ केॅ, हौ आपनें कही केॅ अटकै छै॥27॥
जेकरा कि तत्व के ज्ञान पार्थ! वें विषयोॅ सें परहेज करै
वें जानै छै निश्काम अर्थ, परिणामोॅ सें पग पृथक धरै॥28॥
अनजान प्राणीं ही त्रिगुणोॅ में, बस, लोभ मोह सें बझलोॅ छै
ज्ञानी बस आपनोॅ मार्ग चलै, जे निश्कामोॅ सें सधलोॅ छै॥29॥
सब टा कर्मोॅ के संग चेतना, सहित समर्पण तोहें कर्हौ
हे अर्जुन! तोहें अहं त्यागि, निश्काम रही केॅ युद्ध कर्हौ॥30॥
जें हमरा सौंपी कर्म करै, हमरोॅ शिक्षा पर अमल करै
हौ जग बन्धन से मुक्त बनी, परिणाम हवा निज पक्ष बरै॥31॥
पर हौ जौनें बनी केॅ बिमूढ़, अनसुनोॅ करै हमरोॅ शिक्षा
हौ खल, बस! आपनोॅ राह चलै, जग बन्धन ही ओकरोॅ भिक्षा॥32॥
है राग-द्वेष युत इन्द्रिय के, आकर्षण में जे नर पड़लै
ओकरोॅ मारग अवरूद्ध भेलै, जे आत्म-ज्ञान से पिछड़ैलै॥33॥
कोय त्रुटियो छै निज कर्मोॅ में, तैइयोॅ दोसरा धर्मोॅ से सही
क्षति आपनोॅ कर्मोॅ के अच्छा, दोसरा धर्मोॅ के फेर बही॥34॥
अर्जुन बोललै हे बर्ण सखा! केनां केॅ पापें ग्रसि लेतै?
बिन इच्छा केॅ निज धर्मो केॅ, कोय विवस बनी केनां करतै?॥35॥
भगवानें कहलकै काम क्रोध, सभ रजोॅ गुणोॅ के पोषक छै
यें महापाप उत्पन्न करी, भौतिक जग के विध्वंसक छै॥36॥
जे रङ आगिन केॅ धुईयाँ ने, औ धूरां ऐनां केॅ झाँपै
पेटें गर्भोॅ केॅ झाँपै जेना, लोभें प्राणी वै रङ झाँपै॥37॥
यै हेतु ज्ञान के यै शत्रु, पनपै लेली बड़ि जोर करै
जे भीतरे-भीतरे ज्ञान ताप में, क्रोध के संग-संग लोभ जरै॥38॥
जबेॅ शत्रु लोभ चंगुल में ज्ञान, बुद्धि इन्द्रिय संग खेलै छै
तेॅ ज्ञान झाँपी केॅ मोह, सिन्धु में वै प्राणी केॅ ठेलै छै॥39॥
एकरा लेली हे भरत पुत्र! जे पाप तोरोॅ ढिड़ियाबै छौं
वै दुश्मन केॅ जल्दी हाँकोॅ, जें हरदम्में भरमाबै छौं॥40॥
ज्ञानोॅ के ऊपर तेॅ आत्मा, नीचें ओकरोॅ मन वास करै
मन के अन्दर इन्द्रिय सभ छै, जेकरा बस करलां काम सरै॥41॥
यै लेली बुझी केॅ आत्मा सें
बुद्धि, मन इन्द्रिय चलबाभौ
जेकरा सें दुश्मन बस होथौं
हौ काम तुरत ही करबाभौ॥42॥