भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थक के चूर हो गए आईने / विजय किशोर मानव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थक के चूर हो गए आईने
कोई आया नहीं सामने

उनको सातों समंदर दिए,
इनको प्यासी नदी राम ने

गांव-भर में अंधेरा किया
धूप पर मेरे इल्ज़ाम ने

हाथ बांधे खड़े हैं अदीब,
बोलियां लग रहीं सामने

लड़खड़़ाते हैं सारे चलन,
आंधियां आ रहीं थामने