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थोड़ा-थोड़ा / नील कमल
Kavita Kosh से
थोड़ा-थोड़ा जीते हुए
थोड़ा-थोड़ा मरने का
त्रासद समय है यह ।
मरना जीने की शर्त है ।
जीते हुए तुम्हारे साथ
मरने की बात लेकिन
याद कहाँ रहती है ।
जीना सपने देखना है ।
सपने से गुज़रते हुए
मिल जाते हैं लोग
बनती जाती हैं यादें ।
यादें धोखेबाज़ होती हैं ।
जैसे टूटे नोटों की शक़्ल
फुटकर पैसों में नहीं मिलती
टूट जाती हैं यादें भी ।
डोर छूटती है थोड़ी-थोड़ी ।
जीते-मरते हैं थोड़ा-थोड़ा ।