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दर्द का रंग हरा होता है / नीरज नीर
Kavita Kosh से
दर्द का रंग हरा होता है
वर्षा ऋतु में धरा गुजरती है
प्रसव पीड़ा से
डूबती है दर्द में
हो जाती है अंतर्मुखी
आसमान का नीलापन
प्रतिबिंबित नहीं होता
उसकी देह पर
पीड़ा कि अधिकता में
पृथ्वी रंग जाती है हरे रंग में
जिसकी निष्पत्ति होती है
सृजन में।
जब वृक्ष उखड़ता है
तो थोड़ी पृथ्वी भी उखड़ जाती है
उसके साथ
पृथ्वी वृक्ष को छोड़ना नहीं चाहती है
वृक्ष पृथ्वी के दर्द का प्रतिरूपण है।
बिना दर्द से गुजरे
दर्द को कहना
हरा को लाल कहने जैसा है।
कवि तुम्हें दर्द भोगना होगा
पृथ्वी बनकर
ताकि तुम कर सको
सृजन।
हरे रंग की पहचान मुश्किल है
वर्णांधों के लिए
अक्सर हरा गडमगड हो जाता है
लाल के साथ।