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दादी / ब्रजेश कृष्ण

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वे मेरे पिता की काकी थीं, इसलिए मेरी दादी

ग्यारह बरस की उम्र में हुआ था उनका विवाह
और पन्द्रह की उम्र में पति के पीछे चलते हुए
एक मेले के संग
वे हँसते-खेलते गईं थीं बद्रीनाथ
मगर मेला जब आया वापस
तो वे अकेली हो चुकी थीं

शापित नदी थीं वे इस धरा की
और निर्जल था उनका जीवन

एकान्त में कभी-कभार जब हथेली फैलाकर
वे धीरे से कहती थीं मुझसे कि पढ़ना मेरी रेखाएँ
और बताना कि कितने दिन बचे हैं मेरे जाने में
तो मैं हँसते हुए रोता था मौन

बहत्तर बरस का निर्मम पहाड़ खुरचतीं रहीं वे अपने नाख़ूनों से
और छिपाती रहीं हमेशा दुखों की गठरी
किसी अदृश्य काल-कोठरी में

एक दिन चुपचाप वे चली गई अपनी चारपाई पर लेटे हुए
मैंने देखा कि चींटियों का एक झुण्ड तेज़ी से घूम रहा है उनके हाथ पर
और वे करवट लिए लेटी हैं शान्त

आज रात माथे पर चन्दन का टीका लगाये
अचानक वे आईं मेरे पास
यह बताने कि कुछ नहीं हुआ था उन्हें चारपाई पर

बद्रीनाथ से लौटते हुए
जिस दिन हैजे से मरे थे दादा
उसी दिन हिमालय के उस अनजाने गाँव में
उन्हें तो पहले ही खा गया था एक बाघ।