भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दान न गलतो / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाचऽ लगलइ सदी एकैसमी लम्बा लम्बा धाव से
जनता जोखिम में सिसकऽ हइ मीठ जहर के भाप से

केतना संवत के अगजा ई एक्के दिना जरइतो
न´ मालुम के नीचू रहवा किनखा उपर भेजइतो
चमचा सब मृदंग बजइतो उठ-उठ आधी रात के

ढेर दिवाली के दीया ई एक्के दिना जरइतो
धरती रहत अन्हार मुदा अकाश में दिया देखइतो
चान सुरूज सब न´ ने अइथुन घोघा में मुँह झांप के

एक्के दिन मनावऽ पड़तो अगनित अनंत जगरना
खस्सी पठरू सन अदमी के बलि भी होतो चढ़ना
ई अतंक के बोझा से दब रोतइ धरती काँप के

कउआ बगुला रंगन रंगन के अप्पन नाच देखइतो
ऊपर से अमरित छलकइतो भीतर जहर पिअइतो
घड़ियाली आँसू से डबडब अँखिया विखधर साँप के
कान खोल के सुनऽ नटकिया ई नाटक नऽ चलतो
जन जन के हो आँख चढ़ल अब दाल तोहर नऽ गलतो
सीना पर चढ़-चढ़ के नस-नस रख देतो सब नाप के।