भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिनभर / मनोज छाबड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिनभर
पत्ते गिरते रहे
शाम तक
सारा दरख़्त झरकर हो गया नंगा
थका हुआ दिन
मोड़कर घुटने
रात की चादर तले सो गया
और
पृथ्वी
नाउम्मीदी से ताक़ती रही आकाश की ओर
जहाँ
बड़े-बड़े आकाशीय पिंड
छोटे-छोटे बादलों से घिरे हुए थे
 
उधर
बूढ़ा ईश्वर
पथराई आँखों से
गड़बड़ी के बही-खाते देख रहा था
जहाँ जगह-जगह
कटिंग के निशान थे