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दृष्टि / शरद कोकास

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एक बच्चे का विस्मय था जब मनुष्य की आँखों में
रात और दिन के साथ वह खेलता था आँख मिचौली
समय की प्रयोगशाला में सब कुछ अपने आप घट रहा था

देखने के लिये सिर्फ आँख का होना काफ़ी था
और प्रकाश छुपा था अज्ञान के काले पर्दे में
पृथ्वी से अनेक प्रकाश वर्षों की दूरी के बावजूद
सूर्य लगातार भेज रहा था अपनी शुभाशंसाएं

अब जबकि ऐसा घोषित किया जा रहा है
कि ज्ञान पर पड़े सारे पर्दे खींच दिये गए हैं
और चकाचौंध से भर गई है सारी दुनिया
समझ के पत्थर पर लिख दी गई हैं इबारतें
आँख प्रकाश और दिमाग़ के महत्व की

जैसे घुप्प अंधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझता
अंधेरे में बस दिखाई देता है अंधेरा
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता आँखें खुली या बंद होने से
यह मस्तिष्क ही है जो अंधेरे से बाहर सोच पाता है
दृश्य और आँखों के बीच प्रकाश के रिश्तों में
अंधेरे से बाहर झाँकता है विस्मय से भरा संसार
दृश्य के समुद्र में तैरता है वर्तमान

यह दृश्य में प्रकाश की भूमिका है
जो अदृश्य है विचारों के दर्शन में
यहाँ प्रकाश का आशय भौतिक होने में नहीं है

अंधेरे में भटकते बेशुमार विचारों की भीड़ में
दृष्टि तलाश लेती है अक्सर कोई चमकता हुआ विचार

मानव मस्तिष्क के विशाल कार्यक्षेत्र में
जहाँ समाप्त होती है ऑप्टिक नर्व्स की भूमिका
वहाँ दृष्टि की भूमिका शुरू होती है
ज्ञान की उष्मा से छँटती जाती है असमंजस की धुंध
यहाँ मस्तिष्क प्रारम्भ करता है
दृश्य में दिखाई देते विचार का विश्लेषण

यहीं से शुरू होती है
मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में।

-2010