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देह के अन्दर देह और साँस के अन्दर साँस / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कि जैसे देह के अन्दर एक और देह
साँस के भीतर एक और साँस
कि जैसे रंगों में छिपे होते हैं
कई-कई रंग
रोशनी में रोशनी और
लहरों में लहर
विस्मृति के अन्दर अनंत स्मृतियाँ
दबी होती है
दबी होती है सभ्यता के भीतर
कई सभ्यताएँ
दुनिया के भीतर दुनिया
तुम्हारे कोमल हृदय से निकलकर
प्रेम का कोई शावक
आना चाहता है हमारे क़रीब
शिकारी आँखों से छिपते हुए
और दुनिया की डरावनी ख़बरें
दबोच लेती है उसे
तब इसी उम्मीद और हौसले से
चलती है दुनिया कि
देह के अन्दर होती है देह
और साँस के अन्दर साँस ।