भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो-चार गाम / निदा फ़ाज़ली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो-चार गाम राह को
हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नयी
दीवार देखना |

आँखों की रौशनी से है
हर संग आइना
हर आईने में खुद को
गुनाहगार देखना |

हर आदमी में होते हैं
दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो
कई बार देखना |

मैदाँ की हार-जीत तो
क़िस्मत की बात है
टूटी है जिसके हाथ में
तलवार देखना |

दरिया के उस किनारे
सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो
उस पार देखना |

अच्छी नहीं है शहर के
रस्तों की दोस्ती
आँगन में फैल जाए न
बाज़ार देखना.....!