भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोमुँहे / शिव कुशवाहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवाओं का रूख
अब हो चला विषैला
समाज की सभ्यताओं को
झूठा साबित
करने के लिए
हो रहे षड्यंत्रों के बीच
बताना ज़रूरी है
दोमुँहों को।

कि तुम्हारी
बिजबिजाती बुद्धि में
भरा है सदियों पुराना
कूड़ा कचरा।

जो गाहे बगाहे
कुलबुलाने लगता है
सत्ता कि डोरी के
करीब पहुँच कर।

मदांधता में डूबे
इतिहास को बरगलाते
प्रश्नचिन्ह लगाते
इतिहास की महानता पर।

तुम्हारी जिह्वा कि अपंगता
साफ साफ कह गयी
कि अभी भी तुम
इतिहास को मिटाना
समझते हो अपनी बपौती।

समय रच रहा है अपना इतिहास
वो दिन दूर नहीं
जब ध्वस्त होते हुए दिखेंगे
तुम्हारे किले
जहाँ बैठकर रचते हो षड्यंत्र
समाज को तोड़ने का...