दोहा / भाग 4 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
पढ़त न एकन के तनय, कीन्हे यत्न अनेक।
रहत अभागे मूढ़ ह्वै, शुल्क बिना सुत एक।।31।।
करहिं कठिन श्रम नित्य इक, बाँधि पेट श्रम कार।
उपभोगहिं, इक चैन सों, पूँजीपति-बेकार।।32।।
धनि-धनि न्यायाधीश जी, धनि तव न्यायागार।
तीन हाथ भू हेतु हम, खोये तीन हजार।।33।।
यदि डर विधवा को मनहुँ, करत बिवाह न आन।
‘दाल मंडई’ देश की, ह्वै जैहैं बीरान।।34।।
शान्ति-सुकृति-सौरभ कहाँ, कहँ साँचो सुख चाव।
युवा-शक्ति कानन दह्यो, बेकारी-दुख-दाव।।35।।
कष्ट किसानन के गुनै, तुम सम को जग अन्य।
युवक-हृदय-सम्रात, श्री बीर जवाहर! धन्य।।36।।
दल्यो विरोधिन के दलन, चल्यो स्वचेती चाल।
हिल्यो न हित की राह तें, धनि मुस्तफा कमाल।।37।।
धर्मराज से सत्य प्रिय, अर्जुन से मतिमान।
जर-जमीन-जन-हेतु हा, जूझि भये म्रियमान।।38।।
सुरगण हू ह्वै मुग्ध जहँ, चाह्यो निज अवतार।
मच्यो आज वा भूमिं पै, चहुँदिशि हाहाकार।।39।।
भेदी भलो न भौन को, करि देख्यों निरधार।
घर के भेदिन सों भयो, भारत गारत-छार।।40।।