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धरती-७ / ओम पुरोहित ‘कागद’
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युगों-युगों के
बीज
पडॆ़ है
अंतस में
मानों
चुभे हों
तकले !
हरियल स्वपन
छोडे़ तो कैसे
है अटल निश्चय
परन्तु
उगाए कैसे
कहां है
कमजोर सी
कोई बूंद !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"