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धरती के निहोरा / जयराम दरवेशपुरी

कर जोरि गोड़ पर
खड़ा गगन से धरती करे निहोरा
हे इन्द्रलोक के वरूण देव
काहे निठुर मन तोरा

प्यासल चुह चुह हरियर बगिया
लू से झुलस रहल हे
आँख फारि के धरती काने
बूँद-बूँद ले तरस रहल हे
हलसि हलसि के
बरस रे बदरा कर दे कनकन सोरा

सूखल नदिया ताल तलइया
घास फूस मुरझइलइ असढ़ो बीतल
न´ किसान के तनियों मन गुदगुदइलइ

पपड़ियाल सूखल धरती के
तिकड़ी-तिकड़ी ठोरा
सावन के सरगम सूना हइ
आके बदरा बरसऽ
धरती के दरकल छाती पर
पानी दे-दे सरसऽ
शोक में डूबल जन-जन के
धोवऽ अँखिया के लोरा।