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धूप कच्ची औ कुहासा बस जरा सा / अश्वनी शर्मा

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धूप कच्ची औ कुहासा बस जरा सा
आसमां का तौर ये भी अब जरा सा।

ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकलकर
देखता है वो जहां का दम जरा सा।

हादसे-दर-हादसे जब पेश आये
चल दिये थे फासले से हम जरा सा।

हौसलों में आसमां-दर-आसमां है
हासिलों में चाँद वो भी बस जरा सा।

भागना औ हांफना किस्मत भले हो
मुस्कुरायेंगे थमेंगे हम जरा सा।

रौंद दो धरती, झुका दो आसमां को
वक्त ने टेढ़ा किया मुंह गर जरा सा।

इस सहन की शान है जो एक बरगद
हो गया बूढ़ा, झुका है, बस जरा सा।