न कर्ता, न क्रिया, न कर्म / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मंदिर में जाकर मैं प्रतिदिन
पूजा करता रहा तुम्हारी,
पर बोले तक भी न बताओ
तुम पाषण नहीं तो क्या हो?
मैंने तो भगवान मानकर
घी का दीपक सदा जलाया;
थी सामर्थ्य नहीं, उतना तुम
पर प्रसाद भी नित्य चढ़ाया।
किए कीर्तन, फूल चढ़ाए
घंटे-झालर खूब बजाए;
फिर भी हुई नहीं सुनवाई
बधिर महान नहीं तो क्या हो?।1।
रामेश्वरम् मान कर मैं था
गंगोत्री से काँवर लाया;
पैदल-पैदल चल गंगाजल
लाकर मैंने खूब चढ़ाया।
हाथी के-से पैर हो गए
पीलपाँव बन गैर हो गए;
लेकिन पड़ी न पितृ-दृष्टि तक
निःसंतान नहीं तो क्या हो?।2।
तुम्हें मान कर सावन-भादों
आया था मैं पास तुम्हारे,
लेकिन मुझको मिले जेठ के
और जून के ही अंगारे।
भागीरथ बन गंगा लाया
सिंधु-नील-नद-नीर बहाया
लेकिन रहे पिरेमिड बन तुम
रेगिस्तान नहीं तो क्या हो?।3।
सुने नहीं तुमने नारद की
वीणा के झंकार भरे स्वर;
देखे नहीं-हुए बलि कितने
आते-आते दरवाजे पर।
मूक रहे तुम बियावन-से
शून्य गुफा के सूनसान-से;
कर्ता हो न क्रिया हो, कर्म न
कब्रिस्तान नहीं तो क्या हो?।4।
15.5.85