भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न हम-नवा मिरे ज़ौक-ए-ख़िराम का निकला / मज़हर इमाम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न हम-नवा मिरे ज़ौक-ए-ख़िराम का निकला
ये रास्ता भी उसी नर्म-गाम का निकला

नए गुलों की सदा-ए-शगुफ़्त तेज़ हुई
हवा के लम्स से रिश्‍त कलाम का निकला

मुसव्विरी न सही काम आई बे-हुनरी
कोई बहाना तो उन से सलाम का निकला

तलाश-ए-रिज्क़ में निकले थे महर-ए-सुब्ह लिए
अक़ब से पहला सितारा भी शाम का निकला

यहाँ भी धूप चली आई बे-ख़याली की
ये साएबान-ए-तसव्वुर न काम का निकला

मुसाहिबों की तरह हर क़दम पे ख़ार मिले
मिरा सफ़र तो बड़े एहतिमाम का निकला

वही शजर वही पते वही हुआ वही आग
कलाम-ए-नौ भी मिरा रंग-ए-आम का निकला