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नदी बहती है सदा / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
नदी बहती
भीतर भीतर
गुपचुप चुपचुप
आपाधापी के
शिशिर में
जमी है
उदासी की परत
नदी है कि
बहती रही
गरम सोते सी
अपने ही भीतर
देवदार भी
बर्फ की चादर
ओढे. खडा. रहा
उम्मीदों के सूरज की
चाह में
नदी अब भी
बह रही है
देवदार को
शायद
पता ही नहीं