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नहीं पतंग अकेली / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
नहीं पतंग अकेली
एक पतंग अकेली
नभ के आँगन को
थरथरा रही है
महाव्योम के परम-पुरातन
थिर-प्रपंच में
उथल पुथल-सी मचा रही है
भरी दुपहरी के सूरज को
चिढ़ा-चिढ़ा
तिलमिला रही है
डोर सँभाले ठुनकी देकर
पेंच काटते बालक की
चुटकी की ताकत का
परचम फरफरा रही है, और
गुरुत्वाकर्षण की ताकत को
हँस कर हरा रही है
एक पतंग अकेली
लेकिन नहीं पतंग अकेली
उसकी एक हजार सहेली
नीचे धरती पर जो आँखें
उसको ताक रहीं अलबेली
उन आँखों से ताकत पाती
जिससे ये पतंग उड़ पाती
छूती नील गगन की छाती
उड़ती परीलोक तक जाती
जब उड़ते-उड़ते थक जाती
आकर आँखों में सो जाती
आँखों में सपने बो जाती
यह जो एक पतंग अभी तक
नभ के आँगन को थरथरा रही है!